Lekhika Ranchi

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वरदान--मुंशी प्रेमचंद

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वह ईश्वर से दीन शब्दों में कह रहा था-'मुझसे ऐसा कौनसा अपराध हुआ जिसके दण्डस्वरूप तूने मुझे पिशाच के फन्दे में डाल दिया।' सहसा उसे मालूम हुआ कि मैं मनुष्यों के एक बड़े समूह में इधरउधर धक्के खा रहा हूं। कभी इधर जा पड़ता हूं, कभी उधर। उसे नगरों की भीड़भाड़ में चलने का अभ्यास न था। वह एक जड़ वस्तु की भांति इधर उधर ठोकरें खाता फिरता था, और अपने कमख्वाब के कुरते के दामन से उलझकर वह कई बार गिरतेगिरते बचा। अन्त में उसने एक मनुष्य से पूछा-'तुम लोग सबके-सब एक ही दिशा में इतनी हड़बड़ी के साथ कहां दौड़े जा रहे हो ? क्या किसी सन्त का उपदेश हो रहा है ?'
उस मनुष्य ने उत्तर दिया-'यात्री, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि शीघर ही तमाशा शुरू होगा और थायस रंगमंच पर उपस्थित होगी। हम सब उसी थियेटर में जा रहे हैं। तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी हमारे साथ चलो। इस अप्सरा के दर्शन मात्र ही से हम कृतार्थ हो जाएंगे।'

पापनाशी ने सोचा कि थायस को रंगशाला में देखना मेरे उद्देश्य के अनुकूल होगा। वह उस मनुष्य के साथ हो लिया। उनके सामने थोड़ी दूर पर रंगशाला स्थित थी। उसके मुख्य द्वार पर चमकते हुए परदे पड़े थे और उसकी विस्तृत वृत्ताकार दीवारें अनेक परतिमाओं से सजी हुई थीं। अन्य मनुष्यों के साथ यह दोनों पुरुष भी तंग गली में दाखिल हुए। गली के दूसरे सिरे पर अर्द्धचन्द्र के आकार का रंगमंच बना हुआ था जो इस समय परकाश से जगमगा रहा था। वे दर्शकों के साथ एक जगह पर बैठे। वहां नीचे की ओर किसी तालाब के घाट की भांति सीयिों की कतार रंगशाला तक चली गयी थी। रंगशाला में अभी कोई न था, पर वह खूब सजी हुई थी। बीच में कोई परदा न था। रंगशाला के मध्य में कबर की भांति एक चबूतरासा बना हुआ था। चबूतरे के चारों तरफ रावटियां थीं। रावटियों के सामने भाले रखे हुए थे और लम्बीलम्बी खूंटियों पर सुनहरी ालें लटक रही थीं। स्टेज पर सन्नाटा छाया हुआ था। जब दर्शकों का अर्धवृत्त ठसाठस भर गया तो मधुमक्खियों की भिनभिनाहटसी दबी हुई आवाज आने लगी। दर्शकों की आंखें अनुराग से भरी हुई, वृहद निस्तब्ध रंगमंच की ओर लगी हुई थीं। स्त्रियां हंसती थीं और नींबू खाती थीं और नित्यपरति नाटक देखने वाले पुरुष अपनी जगहों से दूसरों को हंसहंस पुकारते थे।

पापनाशी मन में ईश्वर की परार्थना कर रहा था और मुंह से एक भी मिथ्या शब्द नहीं निकलता था, लेकिन उसका साथी नाट्यकाल की अवनति की चचार करने लगा-'भाई, हमारी इस कला का घोर पतन हो गया है। पराचीन समय में अभिनेता चेहरे पहनकर कवियों की रचनाएं उच्च स्वर से गाया करते थे। अब तो वह गूंगों की भांति अभिनय करते हैं। वह पुराने सामान भी गायब हो गये। न तो वह चेहरे रहे जिनमें आवाज को फैलाने के लिए धातु की जीभ बनी रहती थी, न वह ऊंचे खड़ाऊं ही रह गये जिन्हें पहनकर अभिनेतागण देवताओं की तरह लम्बे हो जाते थे, न वह ओजस्विनी कविताएं रहीं और न वह मर्मस्पर्शी अभिनयचातुर्य। अब तो पुरुषों की जगह रंगमंच पर स्त्रियों का दौरदौरा है, जो बिना संकोच के खुले मुंह मंच पर आती हैं। उस समय के यूनाननिवासी स्त्रियों को स्टेज पर देखकर न जाने दिल में क्या कहते। स्त्रियों के लिए जनता के सम्मुख मंच पर आना घोर लज्जा की बात है। हमने इस कुपरथा को स्वीकार करके अपने माध्यात्मिक पतन का परिचय दिया है। यह निर्विवाद है कि स्त्री पुरुष का शत्रु और मानवजाति का कलंक है।
पापनाशी ने इसका समर्थन किया-'बहुत सत्य कहते हो, स्त्री हमारी पराणघातिका है। उससे हमें कुछ आनन्द पराप्त होता है और इसलिए उससे सदैव डरना चाहिए।'

उसके साथी ने जिसका नाम डोरियन था, कहा-'स्वर्ग के देवताओं की शपथ खाता हूं; स्त्री से पुरुष को आनन्द नहीं पराप्त होता, बल्कि चिन्ता, दुःख और अशान्ति। परेम ही हमारे दारुणतम कष्टों का कारण है। सुनो मित्र, जब मेरी तरुणावस्था थी तो मैं एक द्वीप की सैर करने गया था और वहां मुझे एक बहुत बड़ा मेंहदी का वृक्ष दिखाई दिया जिसके विषय में यह दन्तकथा परचलित है कि फीडरा जिन दिनों हिमोलाइट पर आशिक थी तो वह विरहदशा में इसी वृक्ष के नीचे बैठी रहती थी और दिल बहलाने के लिए अपने बालों की सुइयां निकालकर इन पत्तियों में चुभाया करती थी। सब पत्तियां छिद गयीं। फीडरा की परेमकथा तो तुम जानते ही होगे। अपने परेमी का सर्वनाश करने के पश्चात वह स्वयं गले में फांसी डाल, एक हाथीदांत की खूंटी से लटकर मर गयी। देवताओं की ऐसी इच्छा हुई कि फीडरा की असह्य विरहवेदना के चिह्नस्वरूप इस वृक्ष की पत्तियों में नित्य छेद होते रहे। मैंने एक पत्ती तोड़ ली और लाकर उसे अपने पलंग के सिरहाने लटका दिया कि वह मुझे परेम की कुटिलता की याद दिलाती रहे और मेरे गुरु, अमर एपिक्युरस के सिद्घान्तों पर अटल रखे, जिसका उद्देश्य था कि कुवासना से डरना चाहिए। लेकिन यथार्थ में परेम जिगर का एक रोग है और कोई यह नहीं कह सकता कि यह रोग मुझे नहीं लग सकता।'

पापनाशी ने परश्न किया-'डोरियन, तुम्हारे आनन्द के विषय क्या हैं ?'
डोरियन ने खेद से कहा-'मेरे आनन्द का केवल एक विषय है, और वह भी बहुत आकर्षक नहीं। वह ध्यान है जिसकी पाचनशक्ति दूषित हो गयी हो उसके लिए आनन्द का और क्या विषय हो सकता है ?'
पापनाशी को अवसर मिला कि वह इस आनन्दवादी को आध्यात्मिक सुख की दीक्षा दे जो ईश्वराधना से पराप्त होता है। बोला-'मित्र डोरियन; सत्य पर कान धरो, और परकाश गरहण करो।'
लेकिन सहसा उसने देखा कि सबकी आंखें मेरी तरफ उठी हैं और मुझे चुप रहने का संकेत कर रहे हैं। नाट्यशाला में पूर्ण शान्ति स्थापित हो गयी और एक क्षण में वीरगान की ध्वनि सुनाई दी।
खेल शुरू हुआ। होमर की इलियड का एक दुःखान्त दृश्य था। ट्रोजन युद्ध समाप्त हो चुका था। यूनान के विजयी सूरमा अपनी छोलदारियों से निकलकर कूच की तैयारी कर रहे थे कि एक अद्भुत घटना हुई। रंगभूमि के मध्यस्थित समाधि पर बादलों का एक टुकड़ा छा गया। एक क्षण के बाद बादल हट गया और एशिलीस का परेत सोने के शस्त्रों से सजा हुआ परकट हुआ। वह योद्घाओं की ओर हाथ फैलाये मानो कह रहा है, हेलास के सपूतो, क्या तुम यहां से परस्थान करने को तैयार हो ? तुम उस देश को जाते हो जहां जाना मुझे फिर नसीब न होगा और मेरी समाधि को बिना कुछ भेंट किये ही छोड़े जाते हो।
यूनान के वीर सामन्त, जिनमें वृद्ध नेस्टर, अगामेमनन, उलाइसेस आदि थे, समाधि के समीप आकर इस घटना को देखने लगे। पिर्रस ने जो एशिलीस का युवक पुत्र था, भूमि पर मस्तक झुका दिया। उलीस ने ऐसा संकेत किया जिससे विदित होता था वह मृतआत्मा की इच्छा से सहमत है। उसने अगामेमनन से अनुरोध किया-हम सबों को एशिलीस का यश मानना चाहिए, क्योंकि हेलास ही की मानरक्षा में उसने वीरगति पायी है। उसका आदेश है कि परायम की पुत्री, कुमारी पॉलिक्सेना मेरी समाधि पर समर्पित की जाए। यूनानवीरों, अपने नायक का आदेश स्वीकार करो !
किन्तु समराट अगामेमनन ने आपत्ति की-'ट्रोजन की कुमारियों की रक्षा करो। परायम का यशस्वी परिवार बहुत दुःख भोग चुका है।'
उसकी आपत्ति का कारण यह था कि वह उलाइसेस के अनुरोध से सहमत है। निश्चय हो गया कि पॉलिक्सेना एशिलीस को बलि दी जाए। मृत आत्मा इस भांति शान्त होकर यमलोक को चली गयी। चरित्रों के वार्त्तालाप के बाद कभी उत्तेजक और कभी करुण स्वरों में गाना होता था। अभिनय का एक भाग समाप्त होते ही दर्शकों ने तालियां बजायीं।
पापनाशी जो परत्येक विषय में धर्मसिद्घान्तों का व्यवहार किया करता था, बोला-'अभिनय से सिद्ध होता है कि सत्तहीन देवताओं का उपासक कितने निर्दयी होते हैं।
डोरियन ने उत्तर दिया-'यह दोष परायः सभी मतवादों में पाया जाता है। सौभाग्य से महात्मा एपिक्यु रस ने, जिन्हें ईश्वरीय ज्ञान पराप्त था, मुझे अदृश्य की मिथ्या शंकाओं से मुक्त कर दिया।'
इतने में अभिनय फिर शुरू हुआ। हेक्युबा, जो पॉलिक्सेना की माता थी, उस छोलदारी से बाहर निकली जिसमें वह कैद थी। उसके श्वेत केश बिखरे हुए थे, कपड़े फटकर तारतार हो गये थे। उसकी शोकमूर्ति देखते ही दर्शकों ने वेदनापूर्ण आह भरी। हेक्युबा को अपनी कन्या के विषादमय अन्त का एक स्वप्न द्वारा ज्ञान हो गया था। अपने और अपनी पुत्री के दुर्भाग्य पर वह सिर पीटने लगी। उलाइसेस ने उसके समीप जाकर कहा-'पॉलिक्सेना पर से अपना मातृस्नेह अब उठा लो। वृद्घा स्त्री ने अपने बाल नोच लिये, मुंह का नखों से खसोटा और निर्दयी योद्घा उलाइसेस के हाथों को चूमा, जो अब भी दयाशून्य शान्ति से कहता जान पड़ता था-'हेक्युबा, धैर्य से काम लो। जिस विपत्ति का निवारण नहीं हो सकता, उसके सामने सिर झुकाओ। हमारे देश में भी कितनी ही माताएं अपने पुत्रों के लिए रोती रही हैं जो आज यहां वृक्षों के नीचे मोहनिद्रा में मग्न हैं। और हेक्युबा ने, जो पहले एशिया के सबसे समृद्धिशाली राज्य की स्वामिनी थी और इस समय गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी, नैराश्य से धरती पर सिर पटक दिया।'
तब छोलदारियों में से एक के सामने का परदा उठा और कुमारी पॉलिक्सेना परकट हुई। दर्शकों में एक सनसनीसी दौड़ गयी। उन्होंने थायस को पहचान लिया। पापनाशी ने उस वेश्या को फिर देखा जिसकी खोज में वह आया था। वह अपने गोरे हाथ से भारी परदे को ऊपर उठाये हुए थी। वह एक विशाल परतिमा की भांति स्थिर खड़ी थी। उसके अपूर्व लोचनों से गर्व और आत्मोत्सर्ग झलक रहा था और उसके परदीप्त सौन्दर्य से समस्त दर्शकवृन्द एक निरुपाय लालसा के आवेग से थर्रा उठे !
पापनाशी का चित्त व्यगर हो उठा। छाती को दोनों हाथों से दबाकर उसने एक ठण्डी सांस ली और बोला-'ईश्वर ! तूने एक पराणी को क्योंकर इतनी शक्ति परादान की है?
किन्तु डोरियन जरा भी अशान्ति न हुआ। बोला-'वास्तव में जिन परमाणुओं के एकत्र हो जाने से इस स्त्री की रचना हुई है उसका संयोग बहुत ही नयनाभिराम है। लेकिन यह केवल परकृति की एक क्रीड़ा है, और परमाणु जड़वस्तु है। किसी दिन वह स्वाभाविक रीति से विच्छिन्न हो जाएंगे। जिन परमाणुओं से लैला और क्लियोपेट्रा की रचना हुई थी वह अब कहां हैं ? मैं मानता हूं कि स्त्रियां कभीकभी बहुत रूपवती होती हैं, लेकिन वह भी तो विपत्ति और घृणोत्पादक अवस्थाओं के वशीभूत हो जाती हैं। बुद्धिमानों को यह बात मालूम है, यद्यपि मूर्ख लोग इस पर ध्यान नहीं देते।'
योगी ने भी थायस को देखा। दार्शनिक ने भी। दोनों के मन में भिन्नभिन्न विचार उत्पन्न हुए। एक ने ईश्वर से फरियाद की, दूसरे ने उदासीनता से तत्त्व का निरूपण किया। इतने में रानी हेक्युबा ने अपनी कन्या को इशारों से समझाया, मानो कह रही है-इस हृदयहीन उलाइसेस पर अपना जादू डाल ! अपने रूपलावण्य, अपने यौवन और अपने अश्रुपरवाह का आश्रय ले।
थायस, या कुमारी पॉलिक्सेना ने छोलदारी का परदा गिरा दिया। तब उसने एक कदम आगे ब़ाया, लोगों के दिल हाथ से निकल गये। और जब वह गर्व से तालों पर कदम उठाती हुई उलाइसेस की ओर चली तो दर्शकों को ऐसा मालूम हुआ मानो वह सौन्दर्य का केन्द्र है। कोई आपे में न रहा। सबकी आंखें उसी ओर लगी हुई थीं। अन्य सभी का रंग उसके सामने फीका पड़ गया। कोई उन्हें देखता भी न था।
उलाइसेस ने मुंह फेर लिया और मुंह चादर में छिपा लिया कि इस दया भिखारिनी के नेत्रकटाक्ष और परेमालिंगन का जादू उस पर न चले। पॉलिक्सेना ने उससे इशारों से कहा-'मुझसे क्यों डरते हो ? मैं तुम्हें परेमपाश में फंसाने नहीं आयी हूं। जो अनिवार्य है, वह होगा। उसके सामने सिर झुकाती हूं। मृत्यु का मुझे भय नहीं है। परायम की लड़की और वीर हेक्टर की बहन, इतनी गयीगुजरी नहीं है कि उसकी शय्या, जिसके लिए बड़ेबड़े समराट लालायित रहते थे, किसी विदेशी पुरुष का स्वागत करे। मैं किसी की शरणागत नहीं होना चाहती।'
हेक्युबा जो अभी तक भूमि पर अचेतसी पड़ी थी सहसा उठी और अपनी पिरय पुत्री को छाती से लगा लिया। यह उसका अन्तिम नैराश्यपूर्ण आलिंगन था। पतिवंचित मातृहृदय के लिए संसार में कोई अवलम्ब न था। पॉलिक्सेना ने धीरेसे माता के हाथों से अपने को छुड़ा लिया, मानो उससे कह रही थी- 'माता, धैर्य से काम लो ! अपने स्वामी की आत्मा को दुखी मत करो। ऐसा क्यों करती हो कि यह लोग निदर्यता से जमीन पर गिरकर मुझे अलग कर लें ?'
थायस का मुखचन्द्र इस शोकावस्था में और भी मधुर हो गया था, जैसे मेघ के हलके आवरण से चन्द्रमा। दर्शकवृन्द को उसने जीवन के आवेशों और भावों का कितना अपूर्व चित्र दिखाया ! इससे सभी मुग्ध थे ! आत्मसम्मान, धैर्य, साहस आदि भावों का ऐसा अलौकिक, ऐसा मुग्धकर दिग्दर्शन कराना थायस का ही काम था। यहां तक कि पापनाशी को भी उस पर दया आ गयी। उसने सोचा, यह चमकदमक अब थोड़े ही दिनों के और मेहमान हैं, फिर तो यह किसी धमार्श्रम में तपस्या करके अपने पापों का परायश्चित करेगी।
अभिनय का अन्त निकट आ गया। हेक्युबा मूर्छित होकर गिर पड़ी, और पॉलिक्सेना उलाइसेस के साथ समाधि पर आयी। योद्घागण उसे चारों ओर से घेरे हुए थे। जब वह बलिवेदी पर च़ी तो एशिलीज के पुत्र ने एक सोने के प्याले में शराब लेकर समाधि पर गिरा दी। मातमी गीत गाये जा रहे थे। जब बलि देने वाले पुजारियों ने उसे पकड़ने को हाथ फैलाया तो उसने संकेत द्वारा बतलाया कि मैं स्वच्छन्द रहकर मरना चाहती हूं, जैसाकि राजकन्याओं का धर्म है। तब अपने वस्त्रों को उतारकर वह वजर को हृदयस्थल में रखने को तैयार हो गयी। पिर्रस ने सिर फेरकर अपनी तलवार उसके वक्षस्थल में भोंक दी। रुधिर की धारा बह निकली। कोई लाग रखी गयी थी। थायस का सिर पीछे को लटक गया, उसकी आंखें तिलमिलाने लगीं और एक क्षण में वह गिर पड़ी।
योद्घागण तो बलि को कफन पहना रहे थे। पुष्पवर्षा की जा रही थी। दर्शकों की आर्तध्वनि से हवा गूंज रही थी। पापनाशी उठ खड़ा हुआ और उच्चस्वर से उसने यह भविष्यवाणी की-'मिथ्यावादियों, और परेतों के पूजने वालों ! यह क्या भरम हो गया है ! तुमने अभी जो दृश्य देखा है वह केवल एक रूपक है। उस कथा का आध्यात्मिक अर्थ कुछ और है, और यह स्त्री थोड़े ही दिनों में अपनी इच्छा और अनुराग से, ईश्वर के चरणों में समर्पित हो जाएगी।
इसके एक घण्टे बाद पापनाशी ने थायस के द्वार पर जंजीर खटखटायी।
थायस उस समय रईसों के मुहल्ले में, सिकन्दर की समाधि के निकट रहती थी। उसके विशाल भवन के चारों ओर सायेदार वृक्ष थे, जिनमें से एक जलधारा कृत्रिम चट्टानों के बीच से होकर बहती थी। एक बुयि हब्शिन दासी ने जो मुंदरियों से लदी हुई थी, आकर द्वार खोल दिया और पूछा-'क्या आज्ञा है ?'
पापनाशी ने कहा-'मैं थामस से भेंट करना चाहता हूं। ईश्वर साक्षी है कि मैं यहां इसी काम के लिए आया हूं।'
वह अमीरों केसे वस्त्र पहने हुए था और उसकी बातों से रोब पटकता था। अतएव दासी उसे अन्दर ले गयी। और बोली-'थायस परियों के कुंज में विराजमान है।'

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